Thursday 16 February 2017

सामंतवाद का विकास

सामंतवाद का  विकास :- सामंतवाद के विकास को भूमि अनुदान परंपरा के आलोक में देखे जाने की जरूरत है । भूमि अनुदान की यह प्रक्रिया मौर्योत्तर काल में अक्षयनीवि तथा भूमिछिद्रन्याय के रूप में प्रारम्भ हुई । सातवाहन अभिलेखों में भूमिदान के प्रारंभिक प्रतात्विक साक्ष्य प्रथम शताब्दी ई. से मिलते है । इस काल में भूमिदान मुख्यतः धार्मिक द्रष्टिकोण से दिया जाते थे और इसमें अनुदान प्राप्तकर्त्ताओ को राजस्व वसूलने का अधिकार प्राप्त था।
गुप्तकाल में भूमि अनुदान तथा उससे जुड़े अधिकारों में व्यापक परिवर्तन आया। अब अनुदान प्राप्तकर्त्ता को राजस्व वसूली के अतिरिक्त इन क्षेत्रों में स्थित भूगर्भीय संपदा के उपयोग तथा उस क्षेत्र के प्रशासनिक उत्तरदायित्व का भी अधिकार दिया गया । दान की गई भूमि और गाँवो को राजकीय अधिकारियों एवं सैनिको के हस्तक्षेप से मुक्त क्र दिया गया । इसके साथ ही दानग्रहीता को न्याय एवं दंड का अधिकार भी दिया गया । गुप्त अभिलेखों में 'अम्य्न्र्सिध्दि' के रूप में दानग्रहीत के दीवाना मुकदमो के अधिकारों की पुष्टि करता है । तो 'सदण्डअपराध' शब्द फौजीदारी मुकदमों के अधिकार की पुष्टि करता है । समुद्रगुप्त ने अपनी दिग्विजय के दौरान विभ्भिन राजाओं के साथ जो संबध स्थापित किये उससे भी सामंतवाद के विकास को प्रोत्साहन मिला।  
गुप्तोत्तर काल  में वेतन के बदले राज्याधिकारिओ को भी भू -दान  बड़ी मात्रा में दिये जाने लगे । इस तरह से प्राप्त भूमि पर सामान्यतः पैतृक अधिकार स्थापित हो गया । परिणामस्वरूप नौकरशाही का सामंतीकरण हो गया । इसके अतिरिक्त भूमि अनुदान प्राप्तकर्त्ता को संबंधित क्षेत्र के निवासियों ,जैसे किसानों और कारीगरों पर भी अधिकार प्राप्त हो गया । यह प्रक्रिया छठी शताब्दी में उड़ीसा ,मध्य भारत ,महाराष्ट्र आदि क्षेत्र में शुरू हुई और 8वीं  से 10वीं सदी तक असम ,केरल ,तमिलनाडु में भी विस्तृत हो गई और इसका स्वरूप अखिल भारतीय हो गया । इस प्रकार गुप्तकालीन भूमिदानग्रहीत छोटे स्वायत्त शासक के रूप में स्थापित हो गए । आगे इन्होंने अपनी शक्ति का विस्तार किया और महासमंतो की उपाधि धारण करने लगे ।   


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